अपना चिमटा गाड़े बैठे हैं।
बस्ती मगर उजाड़े बैठे हैं।
कैसे ये साधु-बैरागी हैं
भीतर-भीतर पानी-आगी हैं
पोथी-पत्रा फाड़े बैठे हैं।
आपस में ही लड़ते-मरते हैं
भवसागर के पार उतरते हैं
कुश्ती संग अखाड़े बैठे हैं।
इसे उसे बिन बात चिढ़ाते हैं
जीवन भर बस गणित भिड़ाते हैं
गिनती और पहाड़े बैठे हैं।
नए-नए से समीकरण साधें
आँख मूँदकर वशीकरण साधें
हर रस्ते को ताड़े बैठे हैं।
कभी सुबह तो शाम लगाते हैं
अपने ऊँचे दाम लगाते हैं
भीड़-भाड़ में भाड़े बैठे हैं।
मन में झरते हुए बुरादे हैं
ऐसी में जोगिया इरादे हैं
गर्मी बरखा जाड़े बैठे हैं।
आसमान तक बेल चढ़ाते हैं
सोने वाले दाँत मढ़ाते हैं
अपनी जड़ें उखाड़े बैठे हैं।
पढ़े फातिहा बस दरगाहों पर
मूर्ति लगी इनकी चौराहों पर
सारा समय पछाड़े बैठे हैं।